महाकुम्भ नगर। महाकुम्भ मौजूदा ब्रह्मांड का सबसे बड़ा और व्यापक, व्यवस्थित आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, बहुराष्ट्रीय, बहुभाषीय, दैवीय जन-समागम है। संगम की रेती पर 45 दिनों के लिए एक अलौकिक संसार आकार ले चुका है। सनातन क्या है? उसकी आत्मा क्या है? भारत को अखंड क्यों कहते हैं? यह अनेकता में एकता का देश कैसे है? सैकड़ों भाषा बोलियों, वेशभूषा और खान पान वाले लोग एक ही देश में कैसे मिलजुल कर रहते हैं? सनातन के भिन्न-भिन्न पंथ, मत, सम्प्रदाय, पूजा पद्धतियों और विश्वास कैसे फलते फूलते और आदर पाते हैं?
यानी सनातन को लेकर अगर आपके मन में सवाल हों, और उनका उत्तर आप जानना और समझना चाहते हैं, तो आपक बिना समय गंवाये तीर्थराज प्रयाग में चल रहे महाकुम्भ में चले आइये। यहां किसी स्थान पर खड़े होकर जब आप महाकुम्भ के अद्भुत दृश्यों को देखेंगे, तो पाएंगे कि यही दृश्य समग्र रूप में भारत की पहचान है। मां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी तट पर तंबुओं की नगरी में सनातन के वैभव, शौर्य और संस्कार का रंग हर रोज चटख होता जा रहा है। यहां की हर धड़कन, हर रंग, हर स्वर, यही सब मिलकर अखंड भारत का चित्रण कर रहे हैं।
आत्मा में बसा सनातनकुम्भ पर्व आदि शंकराचार्य की देन है, जिन्होंने सनातन धर्म के लिए साधु-संतों को एकीकृत कर अखाड़े बनाए। आज हमारे यहां 13 अखाड़े सक्रिय हैं। उनका अपना आध्यात्मिक, वैचारिक दर्शन और कर्मकांड हैं, लेकिन उनकी आत्मा में सनातन बसा है। वे सभी सनातनी आस्था के पैरोकार और प्रवक्ता हैं। वे शैव, वैष्णव, उदासीन, महानिर्वाणी, निर्मल नामधारी अखाड़े हो सकते हैं, लेकिन उनकी जुबां से ‘हर-हर गंगे’, ‘हर-हर महादेव’, ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष ही गूंजते हैं। नागा संन्यासियों के भस्म-शृंगार को देखकर तो महादेव के शिवगण याद आने लगते हैं। महाकुंभ मौजूदा ब्रह्मांड का सबसे बड़ा और व्यापक, व्यवस्थित आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, बहुराष्ट्रीय, बहुनस्लीय, बहुभाषीय, दैवीय जन-समागम है।
सनातन के सांस्कृतिक अभ्युदय का शंखनादकुंभ आस्था है। विरासत, विश्वास, विकास और इतिहास है। सनातन के चिरंतन, निरंतर व नित्य नवीन तथ्यों की खोज और उन्हें आत्मसात करने की परंपरा का साक्ष्य है। सनातन के सांस्कृतिक अभ्युदय का शंखनाद है। मानव सभ्यता की यात्रा है। सनातन की गाथा है। संस्कृति के रहस्यों का विवेचन है। शस्त्र और शास्त्र के संयोजन और संतुलन के कौशल की परीक्षा है। दान-धर्म के महत्व का संदेश है। आत्मा के परमात्मा से मिलन का अनुभव है।
सनातन संस्कृति में अनुशासन के महत्व का उद्घोष है। सत्य की सतत जिज्ञासा है। राशियों व नक्षत्रों का योग और संयोग के रहस्यों का उद्घाटन है। पृथ्वी के साथ प्रकृति के संतुलन और संबंधों के रहस्यों की व्याख्या है।
कुम्भ के अनेक मंतव्य हैं। तमाम कथाएं हैं। पर, मुख्य है कि अमृत की आकांक्षा और अमरत्व की अभिलाषा पूरी करनी है तो समाज को बैर-भाव भूलकर एक साथ समुद्र मंथन के लिए एकजुट होना पड़ेगा। कहा जा सकता है कि कुंभ समाज के संचालन का सिद्धांत भी है और सामाजिक दायित्व के प्रतिपालन का सूत्र भी।
कुम्भ अर्थात् संस्कृति का विस्तारसनातनियों के अलावा संसार में अन्य कहीं कोई संस्कृति या सभ्यता क्या इतने विशाल अनुष्ठान की कल्पना कर पाई है? किसी देश में किसी भी समय क्या ऐसा हो पाया, जहां कोई पर्व धार्मिक महत्व पर टिका हो, लेकिन उसके सरोकार धर्म से ज्यादा संस्कृति के विस्तार और उसके नवीनीकरण की विधा को मजबूत कर रहे हों? जहां स्नान का पुण्य सिर्फ भौतिक रूप से मोक्ष की कामना को ही पूरी न करता हो, बल्कि पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात मोक्ष के साथ अर्थ-धर्म और काम की अभिलाषा को भी पूरी करता हो।
सामाजिक समरसता का कुम्भ कुम्भ में अनेक अखाड़ों के साथ साथ भिन्न-भिन्न मत, सम्प्रदायों के लोग हों या साकारवादी, निराकारवादी हों, शैव-शाक्त हों या वैष्णव, कौलाचारी हों या सौर-गाणपत्य, सबका संगम कुंभ में होता है यहां तक कि हर धर्म व वर्ग, जाति-वर्ण के लोग साथ आकर पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं और सामाजिक समरसता का संदेश देते हुए सामान्य मनुष्यत्व से देवत्व को स्पर्श कर लेते हैं। तो भेदभाव मिटाने की भूमि भी है कुम्भ।