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अब मांदर की थाप पर नहीं, इंस्टा रील पर थिरकते हैं लोग



खूंटी,। झारखंड के सबसें प्रमुख वाद्य यंत्र जिसे झारखंउ की सांस्कृतिक पहचान कहा जाता है, धीरे-धीरे अपनी पहचान खोता जा रहा है। कोई भी सामाजिक या सांस्कृतिक समारोह मांदर के बिना अधूरा माना जाता है। ढोल-नगाड़े, शहनाई सब कुछ हो, पर मांदर की थाप न हो तो समारोह में रस नहीं रह जाता। बात चाहे करमा की हो, जीतिया हो अथवा शादी-विवाह या जन्मोत्सव हर कार्यक्रम मांदर के बिना अधूरा रह जाता है, लेकिन यही मांदर के सामने अब अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।

मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में न तो नई पीढ़ी को मांदर में रुचि है और न बजाने वालों को। यही कारण है कि मांदर का निर्माण करने वाले इक्के-दुक्के लोग ही रह गये हैं। तोरपा प्रखंड के तपकारा में मांदर बनाने का पुश्तैनी धंधा करने वाले समन राम बताते हैं कि अब बाजार में मांदर की मांग काफी कम हो गई है। उन्होंने बताया कि पहले के समय में रथ यात्रा के मेले में मांदर की काफी बिक्री होती थी। मांदर बनाने वाले काफी संख्या में रांची के जगन्नाथपुर, जरियागढ़, तोरपा, रागफेणी, रातू गढ़ आदि क्षेत्रो में लगने वालें मेले में मांदर बनानें वाले विभिन्न आकार के मांदर बेचने के लिए जाते थे। रथ यात्रा के छह महीने पहले से कारीगर मांदर का निर्माण करने में लग जाते थे, पर इसकी मांग में काफी कमी आई है।

समन राम बताते हैं कि मांदर का निर्माण नगड़ा मिट्टी और जानवर के चमड़े का उपयोग किया जाता है। मिट्टी का खोल बनाकर उसे तेज आग में पकाया जाता है। जब मिट्टी का खोल आग में पूरी तरह पक जाता है, तब उसे किसी मवेशी के चमड़े से बनी पतली पट्टी या रस्सी को चारों को लपेटा जाता है। बाद में मिट्टी के खोल के दोनों किनारे लगभग पांच सेंटीमीटर की चौड़ाई पर चमड़े को लगाया जाता है।

सभी समुदायों में लोकप्रिय है मांदर: लक्ष्मीकांत

झारखंड के प्रमुख नागपुरी कलाकार और मांदर वादकलक्ष्मीकांत नारायण बड़ाईक, जो बीकेबी मेमोरियल पब्लिक स्कूल तोरपा के प्राचार्य भी हैं, बताते हैं कि मांदर की बांयी ओर के मुंह की गोलाई लगभग 30 इंच और दांयी ओर की गोलाई लगभग 12 इंच तक की होती है। दोनों ओर मवेशी के मोटे चमड़े का प्रयोग किया जाता है और उसके मुंह को बंद कर दिया जाता है। साथ ही दोनों ओर मिट्टी और एक खास तरह के लाल पत्थर को पीस कर चमड़े ऊपर उसका लेप चढ़ाया जाता है, जिसे खरन कहा जाता है। बांयी ओर मिट्टी की मोटी परत का लेप चढाया जाता है, जबकि दांयी ओर पतली। इसीसे मांदर के दोनो ओर मधुर आवाज निकलती है। समन राम और लक्ष्मीकांत नारायण बड़ाईक ने बताया कि मांदर के निर्माण में दो से तीन दिन का समय लग जाता है। नागपुरी भाषा में मांदर के बांयी ओर को ढसाश और दांयी तरफ को चनाश कहा जाता है।



लक्ष्मीकांत नरायण बड़ाई बताते हैं कि झारखंडी संगीत का आधार ही मांदर है। मांदर के बिना कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम पूरा नहीं होता। झारखंड के सभी समुदायों सदान, मुंडा, उरांव, हो, खड़िया, संताली, ईसाई सहित सभी जनजातियों में मांदर समान रूप से लोकप्रिय है। बड़ाई बताते हैं कि आज से लगभग 40-50 वर्ष पूर्व हर शाम गांव के अखाड़े में मांदर के साथ युवक-युवतियां नृत्य करते थे, पर मांबाइल और टीवी के इसयुग में यह परंपरागत वाद्य यत्र विलुप्त होने के कगार पर है।

तीन प्रकार के होते हैं मांदर



लक्ष्मीकांत नारायण बड़ाईक बताते हैं कि संरचना के आधार पर मांदर तीन प्रकार के होते हैं एक छोटा मांदर बनता है, जो लगभग दो फीट लंबा और गोलाकार होता है, जिसे मुची मांदर कहा जाता है। दूसरा लगभग तीन फीट लंबा और गोलाकार होता है जिसे ठोंगी मांदर कहा जाता है। तीसरा लगभग साढ़े तीन फीट लंबा और गोलाकार होता है, जिसे जसपुरिया मांदर कहा जाता है।

मुची मांदर और ठोंगी मांदर स्थानीय आदिवासी समुदाय के लोग बजाते है, जबकि जसपुरिया मांदर सदानों का प्रमुख वाद्ययंत्र है। जासपुरिय मांदर का प्रयोग झारखंड के अलावा छत्तीसगढ़, ओडिशा और मध्यप्रदेश के जनजाति समुदाय के लोग करते हैं। मांदर का निर्माण अनुसूचित जाति के अंतर्गत आनेवाले घासी, मोची के अनुसूचित जन जाति महली समाज के लोग करते हैं लेकिन मांग की कमी के कारण लोग इस पेशे से विमुख होते जा रहे हैं। लक्ष्मीकांत ने कहा कि आज आवश्यक हो गया है कि अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए हम आगे आयें, ताकि आनेवाले पीढ़ी को भी मांदर जैसे वाद्ययंत्र की जानकारी हो और इस ओर इनकी रुचि बढ़े।




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