इतिहास
में एक लम्बा संघर्ष का दौर चलता है। ये वर्षों-बरस का संघर्ष है। कई
पीढ़ियां गुजर गईं इस आस में कि कभी तो न्याय मिलेगा। और अचानक से अब
देखो, न्याय मिलने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा है। यदि भविष्य में भी सब
कुछ ठीक रहा तो सदियों के गहरे घाव समय के साथ भर जाएंगे। जम्मू-कश्मीर
में फिर एक बार वही प्राचीन संस्कृति एवं ज्ञान धारा का प्रवाह दिखाई
देगा, जिसकी स्थापना ऋषियों ने वर्षों तक गहरी साधना के बाद इस धरती पर की
थी। जम्मू का उल्लेख भारत के हर हिन्दू घर में सदियों से देवपूजा में
गूंजता रहा है, फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह हिन्दू भारत के किस
क्षेत्र में निवास करता है, अपने अस्तित्व और पूर्वजों की लम्बी शृंखला
को नमन करते हुए लिया जाने वाला हर संकल्प जम्मूद्वीप के भरतखण्ड से
शुरू होता है। निश्चित ही इससे जम्मू-कश्मीर के अति प्राचीन महत्व को
सहज ही समझा जा सकता है। कश्मीर का नामकरण कश्यप ऋषि के नाम पर हुआ है।
कश्यप ऋषि कश्मीर के पहले राजा थे। कश्मीर को उन्होंने अपने सपनों का राज्य
बनाया। कैस्पियन सागर से लेकर कश्मीर तक ऋषि कश्यप के कुल के लोगों का ही
सर्वत्र राज फैला हुआ था। उनकी एक पत्नी कद्रू के गर्भ से नाग वंश
अस्तित्व में आया, जिनमें प्रमुख आठ नाग हुए-अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक,
कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक। कश्मीर में इन नागों के नाम पर ही
अनंतनाग जैसे स्थान हैं।
फिर हाल में अखनूर से प्राप्त हड़प्पा
कालीन अवशेषों तथा मौर्य, कुषाण और गुप्त काल की कलाकृतियों से जम्मू के
प्राचीन इतिहास की गहराइयों का पता चल ही जाता है। राजतरंगिणी तथा नीलम
पुराण की कथा के अनुसार कश्मीर की घाटी कभी बहुत बड़ी झील हुआ करती थी।
कश्यप ऋषि ने ही यहां सबसे पहले अपना वह प्रयोग किया जिसके कारण से झील का
पानी हटा और यह क्षेत्र एक मनोरम प्राकृतिक स्थल में बदल गया। जहां
मनुष्यों को बसाया जाना संभव हुआ। इतिहास के पन्नों में यहां शैव और
बौद्ध दर्शन का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है। कश्मीर के हिन्दू राजाओं
में ललितादित्य, अवन्तिवर्मन जैसे अनेक राजा हुए हैं, जिनका राज्य पूर्व
में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण, उत्तर-पश्चिम में तुर्किस्तान और
उत्तर-पूर्व में तिब्बत तक फैला था। साहित्यकारों और संस्कृत आचार्यों की
लंबी परंपरा यहां देखने को मिलती है । प्रसिद्ध वैयाकरणिक रम्मत, मुक्तकण,
शिवस्वामिन और कवि आनंदवर्धन, रत्नाकर, भीम भट्ट, दामोदर गुप्त, क्षीर
स्वामी, रत्नाकर, वल्लभ देव, मम्मट, क्षेमेन्द्र, सोमदेव, मिल्हण, जयद्रथ
हों या कल्हण जैसे संस्कृत के अपार विद्वानों की एक लम्बी परम्परा भारत को
इसी कश्मीर की देन है । कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर की एक सांस्कृतिक,
भौगोलिक और अति प्राचीन हिन्दू विरासत है, जिसे कि आगे नष्ट करने के अनेक
प्रयास हुए।
कहना होगा कि कश्मीर में इस्लाम के आगमन के बाद
जैसे यहां सब कुछ बदलना शुरू हो गया था। इस्लाम या मौत चुनाव किसी एक का
ही किया जा सकता था। कई लोग पहाड़ों में छिपते-छिपाते रहे तो कई अनुनय-विनय
से तो कुछ अपने शक्ति-पराक्रम के बल अपने धर्म की रक्षा करते रहे, लेकिन
शाह हमादान के समय में जो यहां इस्लामीकरण शुरू हुआ वह आगे सुल्तान सिकन्दर
के वक्त तक आते-आते अपने चरम पर पहुंच चुका था । कश्मीर के लिए यह वह
दौर था, जब यहां की संस्कृति बलात बदली जा रही थी, इस काल में हिन्दुओं को
बड़ी संख्या में इस्लाम कबूल करवाया गया और इस तरह धीरे-धीरे कश्मीर के
अधिकतर लोग मुसलमान बन गए। समय बीतने के साथ कई पीढ़ियां अपने मूल
अस्तित्व को भूल गईं और इस्लाम अब इनके सिर पर चढ़कर बोलने लगा था। यहां
के लिए यह युग सनातन हिन्दू संस्कृति के लिए उसके ह्रास का युग था।
मंदिर नष्ट किए जा रहे थे। साहित्य और संस्कृति के प्राचीन ज्ञान खजाने
से जुड़ी पाण्डुलिपियां जलाई जा रही थीं। ऐसे में यहां प्राचीन सनातन
परंपरा को माननेवाले हिन्दुओं और विदेशी धरती से आए इस्लाम के बीच संघर्ष
जारी था और तभी इसी संघर्ष के बीच राजा रणजीत सिंह ने 15 जून 1819 को
कश्मीर में सिख शासन की स्थापना की और गुलाब सिंह को जम्मू-कश्मीर का शासन
सौंप दिया, लेकिन रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पैदा हुई परिस्थितियों
में एक नया दौर अंग्रेजी सत्ता का भारत में आया।
तब जम्मू के राजा
गुलाब सिंह की सत्ता सुदूर उत्तर में कराकोरम पर्वत श्रेणी तक फैली हुई थी।
उत्तर में अक्साई चिन और लद्दाख भी इस राज्य के अंतर्गत था। इसके साथ ही
कहना होगा कि बीच में कई मुस्लिम शासकों के बाद भी महाराजा रणबीर सिंह,
राजा रंजीत देव, डोगरा शासक राजा मालदेव से लेकर यहां के अंतिम शासक
महाराजा हरि सिंह 1925 से 1947 तक का हिन्दू साम्राज्य देखने को मिला।
लेकिन इसके बाद भी यहां बसे हिन्दुओं पर इस्लाम का अत्याचार अभी भी
बीच-बीच में उभर कर सामने आ ही रहा था । स्वतंत्र भारत में जम्मू-कश्मीर
से बहु संख्या में हिन्दुओं विशेषकर पंडितों का पलायन, उन पर हुए क्रूर
अत्याचार से इतिहास भरा पड़ा है। केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा
यहां से अनुच्छेद 370 हटाने तक की स्थिति में जो कुछ भी हुआ है, उसके
अनेक दस्तावेज आज पब्लिक डोमेन में मौजूद हैं।
फिर भी कुल मिलाकर
जम्मू-कश्मीर की शताब्दियों तक की कहानी यही कहती है कि अनेक संघर्षों
और इतिहास से पूरी तरह से हिन्दू सांस्कृतिक शब्दावली एवं परम्परा
मिटाने के सदियों चले आततायी प्रयासों के बाद भी हर बार यही देखने में आया
कि हिन्दू सनातन संस्कृति यहां भस्म में से भी पुन:-पुन: उठ खड़ी हुई है
। जिस पर कि अब जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के हाई कोर्ट ने एक नई मुहर लगा
दी है। वस्तुत: कश्मीरी हिंदुओं की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत की रक्षा
के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए न्यायालय ने प्रशासन को अतिक्रमण और
भू-माफिया से यहां के सभी मंदिरों और तीर्थस्थलों की रक्षा करने का आदेश
दिया है। इस निर्णय का उद्देश्य इन पवित्र स्थलों को संरक्षित करना है, जो
1990 के दशक में कश्मीरी पंडित समुदाय के पलायन के बाद से असुरक्षित हैं।
न्यायालय में विरासत संरक्षण के लिए एक मार्मिक लड़ाई देखी गई। न्यायालय
ने जम्मू-कश्मीर प्रवासी अचल संपत्ति (संरक्षण, सुरक्षा और संकट बिक्री पर
रोक) अधिनियम 1997 के तहत आवश्यक कदम उठाने का निर्देश दिया है। दरअसल, इस
मामले में याचिकाकर्ता कश्मीरी पंडितों ने तीर्थस्थलों की स्थिति के बारे
में चिंता व्यक्त की थी। जवाब में, उच्च न्यायालय ने इन ऐतिहासिक स्थलों
की सुरक्षा के लिए राज्य की जिम्मेदारी पर जोर दिया। यहां तक कि हिन्दू
श्मशान घाट पर अतिक्रमण पर भी न्यायालय ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है
और हर अतिक्रमण को हटाने का निर्देश दिया है। इस संबंध में सामने आए एक
डेटा के अनुसार, कश्मीरी पंडितों के लगभग 900 परिवार वर्तमान में कश्मीर
में रहते हैं । यहां 3000 के करीब मंदिर, तीर्थ स्थल, 600 श्मशान घाट और
लगभग इतने ही पवित्र झरने हैं, जिनमें से 105 का रखरखाव ठीक से किया जाता
है और बाकी पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसे में अब जम्मू-कश्मीर और
लद्दाख हाई कोर्ट से आए हिन्दू पक्ष के निर्णय के बाद यहां उम्मीद की
गहरी आस जगी है। सिर्फ जम्मू-कश्मीर में निवासरत हिन्दुओं को ही नहीं,
देश के प्रत्येक हिन्दू को लगता है कि जल्द ही जम्मू-कश्मीर में
मंदिरों की पुनर्प्रतिष्ठा का नया दौर देखने को मिलेगा।