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धर्म दीर्घकालिक राजनीति है एवं राजनीति अल्पकालिक धर्म


धर्म दीर्घकालिक राजनीति है एवं राजनीति अल्पकालिक धर्म : 
 
डॉ. राम मनोहर लोहिया के सन्दर्भ में भारतीय लोकतंत्र में दो गहरे विमर्श आज भी विचार की माँग करते हैं धर्म और राजनीति। भारत जैसे सांस्कृतिक देश में धर्म एक दीर्घकालिक चेतना है, जबकि राजनीति अक्सर समय, परिस्थिति और सत्ता के समीकरण पर आधारित एक अल्पकालिक व्यवस्था बनकर रह जाती है।
डॉ. राम मनोहर लोहिया, जिन्होंने भारतीय समाजवाद को वैचारिक गहराई दी, बार-बार इस बात पर बल देते रहे कि राजनीति का उद्देश्य समाज में समानता, न्याय और नैतिकता लाना है – ना कि सिर्फ सत्ता प्राप्त करना। लेकिन आज उनके अनुयायी जिस तरह से जातीय समीकरणों के सहारे सत्ता तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं, वहाँ यह प्रश्न खड़ा होता है:
क्या लोहिया का समाजवाद केवल जातीय जोड़-तोड़ बनकर रह गया है? और क्या वे धर्म की दीर्घकालिक चेतना को समझ पाए हैं?

धर्म: एक दीर्घकालिक राजनीतिक शक्ति
भारत में धर्म केवल आध्यात्मिक साधना का विषय नहीं है। यह समाज की रचना, आचरण, मूल्यों और जीवन-दृष्टि को दिशा देने वाला सांस्कृतिक आधार है।
हजारों वर्षों से धर्म ने न केवल व्यक्ति को आत्म-निर्माण का अवसर दिया, बल्कि सामूहिक चेतना, सामाजिक एकता और उत्तरदायित्व का भाव भी दिया। इसी कारण धर्म, जब राजनीतिक चेतना के रूप में सामने आता है, तो उसका प्रभाव दीर्घकालिक होता है। 

उदाहरण:
रामराज्य की अवधारणा हो या गांधी का 'धर्म के साथ राजनीति' का विचार — धर्म ने राजनीतिक दृष्टिकोण को नैतिक बनाया। धर्म से निकले मूल्य (सत्य, अहिंसा, तप, त्याग) आज भी जनमानस पर असर करते हैं। इसीलिए धर्म को राजनीति में सिर्फ 'वोट बैंक' की दृष्टि से देखना गलत है; यह एक दीर्घकालिक दिशा देने वाला तत्व है।
 
राजनीति: एक अल्पकालिक सत्ता धर्म :
राजनीति का मूल स्वभाव सत्ता का संचालन है। यह वर्तमान समय की चुनौतियों, अवसरों और जनसांख्यिकी को ध्यान में रखकर निर्णय लेती है।
किंतु जब राजनीति मूल्यों, विचारधाराओं और सांस्कृतिक चेतना से कट जाती है, तो वह केवल एक अस्थायी व्यवस्था बन जाती है जहाँ सत्ता का नशा तो होता है, लेकिन दीर्घकालिक परिवर्तन की क्षमता नहीं होती। आज की राजनीति में विचारधारा पीछे हट गई है, और जातीय समीकरण, सामुदायिक ध्रुवीकरण, और तात्कालिक नारों ने उसकी जगह ले ली है।
 
लोहिया का समाजवाद और आज की जातीय राजनीति:

डॉ. राम मनोहर लोहिया ने राजनीति को केवल सत्ता का साधन नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का माध्यम माना। उनका प्रसिद्ध नारा था  "पिछड़े पावें सौ में साठ"  सामाजिक न्याय की ओर इशारा करता था, न कि जातीय वर्चस्व की ओर।
लेकिन आज उनके  तथाकथित अनुयायी जातिगत वोट बैंक को ही राजनीति की धुरी बना चुके हैं। सामाजिक परिवर्तन की बजाय वे सामाजिक विभाजन का राजनीतिक दोहन कर रहे हैं।


 लोहिया का धर्म-दृष्टिकोण:
लोहिया स्वयं धार्मिक पाखंड के विरोधी थे, पर उन्होंने कभी धर्म को राजनीति से बाहर करने की वकालत नहीं की। वे मानते थे कि धर्म भारतीय समाज की आत्मा है, और उसकी चेतना को समझे बिना कोई भी दीर्घकालिक समाज-परिवर्तन संभव नहीं।

धर्म बनाम जातीय राजनीति: टकराव की जगह संतुलन की ज़रूरत:
आज जब एक ओर कुछ राजनीतिक दल धर्म की सांस्कृतिक शक्ति को समझकर उसे एक राष्ट्रवादी चेतना में बदल रहे हैं, वहीं कुछ समाजवादी नेता केवल जातीय गणित में उलझे हैं।
धर्म की राजनीति में एक नैतिक अनुशासन और सांस्कृतिक गहराई है, जबकि जातीय राजनीति अक्सर संकीर्णता, टकराव और सीमितता में घिरी रहती है।

इसलिए जब जातीय राजनीति, धर्म की दीर्घकालिक चेतना से टकराती है, तो वह पराजित होती है। क्योंकि धर्म, लोगों के मन, आत्मा और संस्कृति को छूता है वहीं जातीय राजनीति केवल आंकड़ों और आरक्षण की सीमाओं में बंधी रहती है।आज लोहिया के अनुयायियों को आत्ममंथन करने की आवश्यकता है।क्या वे केवल जातियों की संख्या गिनते रहेंगे या समाज के सभी वंचित वर्गों के लिए एक सांस्कृतिक और नैतिक आंदोलन खड़ा करेंगे?

क्या वे धर्म की चेतना को समझकर उसे समाजवाद के साथ संतुलित करेंगे?
धर्म दीर्घकालिक राजनीति है क्योंकि वह समाज की आत्मा से जुड़ा है।
राजनीति यदि धर्म से प्रेरित नहीं होगी, तो वह केवल एक अल्पकालिक बनकर रह जाएगी , जहाँ सत्ता तो मिलेगी, पर दिशा नहीं।

डॉ. लोहिया की सच्ची विरासत वही है जो समाज के लिए स्थायी न्याय, नैतिकता और सांस्कृतिक एकता की ओर बढ़े  न कि केवल चुनावी जातीय आंकड़ों पर निर्भर रहे।



नोट: यह आलेख हमें प्रदीप सिंह द्वारा भेजा गया है, जो पेशे से पत्रकार हैं और समाजवादी साहित्य तथा डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचारों पर गहरी पकड़ रखते हैं। उनके विश्लेषणों में विचारशीलता, सामाजिक सरोकार और वैचारिक स्पष्टता की विशेष झलक मिलती है।

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