राष्ट्रीय सागर
विशेष संवाद ❖ प्रश्न 1: हाल ही में विपक्ष ने यह आरोप लगाया है
कि मोदी सरकार शिक्षा व्यवस्था का ‘भगवाकरण’ कर रही है। आप भी केंद्र की एनडीए सरकार के घटक दल से हैं, इस आरोप को आप किस नजरिए से देखते हैं?एवं युवाओं को इस मसले पर क्या कहना
चाहेंगे ? देवेश ठाकुर
(हंसते हुए): भगवा रंग तो
भारतीय सांस्कृतिक पहचान और सनातन मूल्यों का प्रतीक है। क्या यह अपराध है? क्या भारतीय संस्कृति को जानना, पढ़ाना, समझना और अपनाना गलत है? अगर कोई सरकार या संस्था भारतीय ज्ञान परंपरा को पाठ्यक्रम
में शामिल कर रही है तो यह शिक्षा का आधुनिकीकरण है, भगवाकरण नहीं। और एक बात शिक्षा में अगर "भगवाकरण" हो भी रहा होता (जो
नहीं हो रहा), तब भी यह राष्ट्र
की सांस्कृतिक विरासत को मजबूत करने का कार्य होता, कोई पाप नहीं। मै अपने सभी
विपक्ष के साथियों से कहना चाहूँगा की संविधान की आत्मा को जानने के लिए पहले
संविधान को पढ़ना जरूरी है। उसमें कहीं नहीं लिखा कि भारत का अतीत, संस्कृति और सभ्यता को शिक्षा से हटाया
जाए। बल्कि अनुच्छेद 51A हमें यह निर्देश
देता है कि हम अपने गौरवशाली अतीत की रक्षा करें। अब जब छात्रों को
यह बताया जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में क्या होता था, कैसे भारत ज्ञान का वैश्विक केंद्र था, तो क्या यह संविधान विरोधी है? यह सब दुष्प्रचार
है। जिनके पास आज कोई ठोस मुद्दे नहीं हैं, वे अब भावनात्मक और भ्रमजनक मुद्दों को उछालकर जनता को
गुमराह करना चाहते हैं।मेरे अनुसार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक क्रांतिकारी पहल है। इसमें मातृभाषा
में पढ़ाई को प्राथमिकता दी गई है, जो बच्चों के बौद्धिक विकास में अत्यंत सहायक है। साथ ही
भारत की परंपरा, दर्शन और
शास्त्रों को उचित स्थान देने की बात की गई है। अब सवाल उठता है अगर बच्चों को उनके ही देश के संतों, विचारकों, और वैज्ञानिकों के बारे में पढ़ाया जाएगा तो इसमें गलत क्या
है? कहीं यह लिखा है
कि सुबह प्रार्थना में "जय श्री राम" बोलना अनिवार्य है? नहीं। कहीं गीता का पाठ अनिवार्य किया
गया है? नहीं। यह सब झूठी
बातें हैं, भ्रम फैलाने के
लिए। मै भारत के सभी लोगो को आपके अखबार राष्ट्रीय सागर के माध्यम से बताना चाहंगा
की शिक्षा को राजनीति से अलग रखना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में राजनीति ही
शिक्षा को घसीटकर अपने अनुसार ढालना चाहती है। हमारी सरकार की कोशिश है कि शिक्षा
गुणवत्ता आधारित हो, रोजगारोन्मुखी हो
और भारत की जड़ों से जुड़ी हो।लेकिन विपक्ष की राजनीति ही ऐसी है कि जहां उनको
मौका मिलता है, वे शिक्षा में भी
जाति, धर्म और रंग की
राजनीति घुसेड़ देते हैं। विपक्ष बार बार
आरोप लगता रहता है कि NDA की मोदी सरकार ने सबकुछ भगवा कर दिया है लेकिन उन्हें
शायद मालूम नहीं है कि ‘भगवा’ रंग केवल राजनीति
का प्रतीक नहीं है, यह हमारे त्याग, बलिदान और तपस्या का प्रतीक है। यह
रंग भारत की पहचान का अभिन्न हिस्सा है। क्या आप वैराग्य, योग, और साधना को भारत से अलग कर सकते हैं? नहीं।इसलिए अगर किसी सरकार के
कार्यक्रमों में यह रंग दिखता है, तो इसका यह मतलब
निकालना कि देश का भगवाकरण हो रहा है — यह मानसिक दिवालियापन है।मैं युवाओं से कहना चाहूंगा कि पहले
खुद पढ़िए, सोचिए और फिर
निष्कर्ष पर आइए। किसी पार्टी, नेता, मीडिया या यूट्यूबर की बातों पर आंख
मूंदकर भरोसा मत कीजिए। देश को समझिए, संविधान को समझिए, और शिक्षा का अर्थ समझिए। अगर भारतीय
शिक्षा प्रणाली में भारत की आत्मा नहीं होगी तो फिर उसमें क्या बचेगा? ❖ प्रश्न: कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मोतिहारी पहुंचे
थे, जो कि पिछले 11 वर्षों में उनका बिहार का 53वां दौरा था। इस बार बिहार में चुनावों
की आहट है, और इस दौरे को
चुनावी तैयारियों की दृष्टि से भी देखा जा रहा है। लेकिन विपक्ष का आरोप है कि
बिहार की जनता अब "विकास के वादों" से ऊब चुकी है और प्रधानमंत्री मोदी
और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात अब जनता नहीं सुनती। साथ ही, नीतीश कुमार द्वारा 125 यूनिट बिजली मुफ्त देने की हालिया घोषणा
को भी विपक्ष “चुनावी प्रलोभन” बता रहा है, यह कहते हुए कि ये काम पहले क्यों नहीं
हुए? इस पूरे परिदृश्य
को आप कैसे देखते हैं? ❖ उत्तर (देवेश चन्द्र ठाकुर): देखिए, सबसे पहली बात तो यह कि प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी जी और मुख्यमंत्री नीतीश
कुमार जी दोनों देश और
बिहार के ऐसे जननेता हैं जिन्होंने केवल भाषण नहीं दिए, बल्कि जमीन पर ठोस विकास कार्य किए हैं, जो आज देश और राज्य के हर कोने में दिखाई
दे रहे हैं। यह कहना कि “बिहार की जनता अब
नहीं सुनती” यह निराशा और हताशा से ग्रसित विपक्ष की एक राजनीतिक थकावट है। अगर जनता ने न
सुनना होता तो 2014, 2019 और फिर एक बार फिर
2024 में एनडीए को इतना स्पष्ट और
ऐतिहासिक जनादेश क्यों मिलता? प्रधानमंत्री मोदी
जी का यह 53वां दौरा अपने-आप में यह प्रमाणित करता है कि वे बिहार को कितनी
प्राथमिकता देते हैं। हर बार वे कुछ न कुछ लेकर आते हैं सड़क, रेल, गैस, बिजली, पानी, कृषि सुधार, डिजिटल कनेक्टिविटी, गरीबों के लिए आवास और किसानों के लिए
सीधी मदद। और रही बात नीतीश कुमार जी की तो 20 वर्षों तक बिहार की सेवा करना, कोई साधारण उपलब्धि नहीं होती। वे
मुख्यमंत्री नहीं बल्कि परिवर्तन के
प्रतीक बन गए हैं। वही बिहार, जो एक समय में जंगलराज और पलायन का पर्याय बन गया था, आज सड़क, बिजली, महिला सशक्तिकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून-व्यवस्था के मामलों में देश
के कई राज्यों से बेहतर स्थिति में खड़ा है। अब विपक्ष कहता है
कि 125 यूनिट बिजली मुफ्त
देने की बात अब क्यों हो रही है? तो मैं उनसे पूछता
हूँ क्या आप यह कहना चाहते हैं कि गरीबों को सुविधा देना ‘पाप’ है? और अगर कोई सुविधा थोड़ा देर से मिल रही
है, लेकिन मिल तो रही
है, तो उसमें भी आप
राजनीति खोज लेंगे? “देर आए, दुरुस्त आए” यह एक सकारात्मक
सोच है, और यही बिहार की
सरकार कर रही है। अगर कुछ पहले नहीं हुआ, तो अब हो रहा है, इसका स्वागत होना चाहिए ना कि आलोचना। फिर सवाल उठता है
कि क्या यह सिर्फ चुनाव के लिए किया गया? तो मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगा अगर चुनाव के डर
से कोई सरकार गरीबों को फायदा दे रही है, तो यह भी लोकतंत्र की जीत है। और नीतीश कुमार जी की सरकार कोई अचानक सत्ता में आई हुई
सरकार नहीं है, उन्होंने लगातार
काम करके दिखाया है। बिहार देश का
एकमात्र राज्य है जहाँ त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में 50% आरक्षण महिलाओं को दिया गया यह कोई चुनावी स्टंट नहीं, यह दूरदर्शी सोच और साहसिक प्रशासनिक निर्णय है। आज बिहार पुलिस बल
में महिलाओं की भागीदारी सबसे अधिक है। आज आप बिहार के किसी जिले में जाइए, किसी वीआईपी की सुरक्षा में देखिए, या कानून व्यवस्था की स्थिति में आपको महिलाएं सशक्त रूप से बन्दूक लेकर खड़ी दिखेंगी। यही
नहीं, ये महिलाएं सिर्फ सुरक्षा
नहीं दे रही हैं, ये अपने घर, समाज और राज्य को नया भविष्य दे रही हैं। वे अब चूल्हा-चौका
तक सीमित नहीं हैं, वे थाने की डेस्क
पर, गश्ती वाहन में, निर्णय की ताकत में खड़ी हैं यह नीतीश मॉडल का कमाल है। अब अगर विपक्ष
पूछता है कि ये पहले क्यों नहीं हुआ? तो जवाब यही है आपने किया होता तो
आज सवाल नहीं उठते। आपने नहीं किया, इसलिए आज हमें करना पड़ रहा है। और हम कर रहे हैं, योजनाबद्ध ढंग से, संविधान और समाज दोनों को साथ लेकर। और ये जो कहते हैं
कि जनता अब नहीं सुनती तो मैं आपके माध्यम उनसे पूछना चाहता हूं , आख़िर कौन-सा ऐसा वर्ग है जो मोदी-नीतीश
के विकास कार्यों से वंचित रहा है? किसानों को
पीएम-किसान योजना से सीधा लाभ, महिलाओं को
उज्ज्वला योजना से गैस, घरों में जल-जीवन
मिशन के तहत नल का जल, शौचालय निर्माण से
गरिमा, युवाओं को
स्टार्टअप और स्किल इंडिया से प्रशिक्षण, गरीबों को आयुष्मान भारत से स्वास्थ्य सुविधा किसको छोड़ा गया? आज जो भी आलोचना
हो रही है, वह तथ्यहीन है, निराधार है और जनादेश के डर से प्रेरित
है। क्योंकि विपक्ष को
ये समझ में आ गया है कि बिहार की जनता विकास की राजनीति समझ चुकी है, जाति और धर्म के नाम पर उसे अब गुमराह नहीं किया जा सकता। ❖ प्रश्न: हाल के दिनों में महाराष्ट्र में मराठी भाषा को लेकर एक बार
फिर उबाल देखने को मिला है। उद्धव ठाकरे और मनसे के राज ठाकरे द्वारा मराठी भाषा
के नाम पर उत्तर भारतीयों के खिलाफ एक डर और असुरक्षा का माहौल बनाया जा रहा है।
रिपोर्ट्स के अनुसार, उत्तर भारतीय लोगों के साथ मारपीट की घटनाएं भी सामने आई
हैं, और उन पर
"मराठी न जानने" के नाम पर हमला किया जा रहा है। एक ओर यह भाषाई
असहिष्णुता है, दूसरी ओर इससे संविधान के मूल्यों की भी अवहेलना हो रही है।
आप स्वयं महाराष्ट्र से गहरा संबंध रखते हैं शिक्षा, नौकरी और जीवन का बड़ा हिस्सा वहीं बीता
है। ऐसे में आप इस संपूर्ण घटनाक्रम को किस रूप में देखते हैं, और सरकार इससे कैसे निपटे, इस पर आपकी राय क्या है? ❖ उत्तर (देवेश चन्द्र ठाकुर): इस प्रकार की
घटनाएं भाषा के नाम पर
लोगों को मारना, डराना, अपमानित करना केवल संविधान की आत्मा के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि भारतीयता की मूल भावना का भी अपमान हैं।
देखिए, यह बात सर्वप्रथम
समझनी ज़रूरी है कि भारत एक बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक देश है, जहां विविधता ही हमारी
ताकत है। यह देश न केवल संविधान से चलता
है, बल्कि आपसी सम्मान और
सहिष्णुता से भी। अब जहां तक
महाराष्ट्र की बात है , मैं खुद वहां
वर्षों से रहा हूं। मेरी पढ़ाई, मेरी नौकरी, मेरा व्यवसाय, मेरा जीवन सब कुछ वहीं का
हिस्सा है। और मैं गर्व से कह सकता हूं कि मैं एक बिहारी होने के साथ-साथ एक बेहतर
मराठी भाषी भी हूं। मैंने मराठी सीखी, बोली और उसमें संवाद किया, लेकिन यह कभी जबरन नहीं था, बल्कि सम्मान और आवश्यकता के तहत था। मैं आज किसी भी मराठी व्यक्ति के साथ मराठी में खुलकर
बहस कर सकता हूं, संवाद कर सकता हूं
और यह मेरी शक्ति है, मेरी स्वीकार्यता की पहचान है, न कि मेरी मजबूरी। लेकिन, जब कुछ लोग चाहे वो उद्धव
ठाकरे हों या राज ठाकरे भाषा को हथियार बनाकर राजनीति और उन्माद फैलाते हैं, तब यह गंभीर सामाजिक संकट बन जाता है। उत्तर
भारतीयों को, खासकर बिहार और
यूपी से आने वाले लोगों को, “बाहरी” बताकर हमला करना, यह केवल अराजकता फैलाना नहीं, बल्कि भारत की एकता पर प्रहार है। मैं
स्पष्ट कहना चाहता हूं भाषा कभी भी असहमति और हमले का कारण नहीं
बन सकती। महाराष्ट्र में
हमारी सरकार ने ऐसे मामलों पर रोक लगाने की कोशिश की है, और करना भी चाहिए। लेकिन, हर सड़क पर, हर गली में तो पुलिस नहीं बैठाई जा सकती। यदि कोई अचानक
रास्ते में आकर “तुम उत्तर भारतीय
हो” कहकर किसी को
थप्पड़ मार देता है, तो पुलिस क्या कर
सकती है? ये सामाजिक
जागरूकता और राजनीतिक जवाबदेही का मामला है। मूल मुद्दा ये है — क्या आपको भाषा सीखने का अधिकार नहीं है? है। लेकिन क्या सीखने को मजबूर करने का अधिकार किसी को
है? नहीं है। संविधान ने यह
स्पष्ट रूप से कहा है कि भारत में कोई एक राष्ट्रभाषा (National Language) नहीं है। हिंदी और अंग्रेज़ी शासकीय कार्यों की आधिकारिक भाषाएं हैं, और बाकी भाषाएं राज्य स्तरीय महत्व रखती हैं। ऐसे में
मराठी या कोई भी भाषा, उसकी अपनी जगह है लेकिन यह जबरन थोपी नहीं जा सकती। भाषा के नाम पर
मरना पीटना कोई “बहादुरी” की पहचान नहीं है। बंगाली, तमिल, पंजाबी, उर्दू, भोजपुरी इत्यादि हर भाषा का सम्मान
है, और हर नागरिक को
किसी भी राज्य में जाकर स्वतंत्रता से जीने, काम करने और संवाद करने का अधिकार है। अगर आप मराठी को
सीखने के लिए प्रेरित करते हैं, सम्मानपूर्वक आग्रह करते हैं तो यह स्वागतयोग्य
है। लेकिन अगर आप दस लोग
मिलकर दो को मारते हैं, टीवी पर फोटो
खिंचवाते हैं और खुद को शेर समझते हैं, तो इससे बड़ा कायर और कमजोर कोई नहीं है। और मैं पूछता हूं क्या जब भारत को खतरा होता है, तब मराठी, बिहारी, बंगाली, तमिल, ये भेद किए जाते हैं? नहीं। जब चीन और पाकिस्तान के खिलाफ सीमा पर लड़ाई होती है, तब हर राज्य का सैनिक भारतीय बनकर लड़ता है न कि अपनी भाषा या क्षेत्र के नाम पर। भारत मां की रक्षा करते समय हम सब एक
होते हैं, फिर इस भाषा के
नाम पर आप किसका अपमान कर रहे हैं? यह दुर्भाग्यपूर्ण
है कि भाषा जैसे सुंदर विषय को राजनीतिक हथियार बना दिया गया है। मराठी सीखना कोई शर्म की बात नहीं है, बल्कि गर्व की बात है। लेकिन किसी को
मारकर, अपमानित करके, डरा-धमकाकर भाषा नहीं सिखाई जाती। ये संवैधानिक रूप
से भी गलत है और नैतिक रूप से भी। मेरा स्पष्ट संदेश
है आपसी सम्मान रखें, भाषा सीखें, सिखाएं, लेकिन सियासत के लिए उसे हथियार न बनाएं। अंततः मै केवल यह
कहना चाहता हूँ कि भाषा प्रेम है, हथियार नहीं। अगर
भारत की एकता को बनाए रखना है, तो हर नागरिक को
यह समझना होगा कि संविधान का सबसे
बड़ा सिद्धांत समानता, स्वतंत्रता और
भाईचारा है।राजनीति को
भाषा से नहीं, काम से कीजिए प्रश्न: उत्तर
(देवेश
चन्द्र ठाकुर):
यदि हम ऐतिहासिक तुलना करें, तो
तथाकथित "धर्मनिरपेक्ष" सरकारों के कार्यकाल में भारत में सिलसिलेवार बम
धमाके, आत्मघाती हमले और सीमापार से प्रायोजित
बड़े पैमाने पर आतंकी घटनाएं आम थीं। विशेषकर 26/11 मुंबई
हमले, 2005 दिल्ली ब्लास्ट, 2006 मुंबई लोकल ट्रेन धमाके—इन
सबका नाम लेते ही एक खून जमा देने वाला भय स्मृति में उभर आता है। और दुर्भाग्यवश
इन घटनाओं के बाद की सरकारें "कड़ी निंदा" और "डॉज़ियर" भेजने
तक ही सीमित रह जाती थीं। एक डर और निष्क्रियता का वातावरण था। आतंकियों को मारने
की बजाय उन्हें पकड़ा जाता था, जेल में बिरयानी खिलाई जाती थी, और फिर वर्षों तक उनके मुकदमे चलते थे। अब अगर हम मोदी सरकार के कार्यकाल को देखें, तो 2014 के बाद भारत की आतंकवाद के प्रति नीति
"शून्य सहिष्णुता" (Zero Tolerance) की
रही है। 'सर्जिकल
स्ट्राइक' और 'बालाकोट एयर स्ट्राइक'“ऑपरेशन
सिन्दूर” इस बदली हुई सोच और सक्रिय रणनीति के
प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यह वही भारत है, जिसने
उरी हमले के जवाब में पाकिस्तान की सीमा में घुसकर आतंकियों को मार गिराया और पूरी
दुनिया को संदेश दे दिया कि अब भारत चुप नहीं बैठेगा। यही नहीं, आतंकी गतिविधियों पर "रिएक्टिव" नीति की जगह अब
"प्रो-एक्टिव" और "प्रिवेंटिव" नीति अपनाई गई है। जहां पहले पाकिस्तान की तरफ से आतंकी घुसपैठ होती थी और
सरकारें केवल निगरानी करती थीं, वहीं अब भारत ड्रोन, सैटेलाइट सर्विलांस और तकनीकी खुफिया के माध्यम से आतंकियों की
हर हरकत पर नज़र रखता है और ज़रूरत पड़ने पर लक्षित हमले करता है। जम्मू-कश्मीर
में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद न केवल वहां आतंकवादियों
की भर्ती में भारी गिरावट आई है, बल्कि अब वहां के युवा मेकअप आर्टिस्ट,
सॉफ्टवेयर इंजीनियर, IAS अधिकारी
बनने का सपना देखने लगे हैं—ये परिवर्तन सिर्फ कानून से नहीं,
आत्मविश्वास और स्थायित्व की भावना से आता है, जो मोदी सरकार ने वहाँ दिया। जहां तक 'ऑपरेशन सिंदूर' की
बात है, यह भारत की खुफिया और सैन्य एजेंसियों
की एक उच्चस्तरीय संयुक्त कार्रवाई थी, जिसमें
न केवल सीमापार आतंकी नेटवर्क को निष्क्रिय किया गया, बल्कि
भारत विरोधी एजेंडे चलाने वालों के प्रोपेगेंडा को भी ध्वस्त किया गया।
दुर्भाग्यवश, विपक्ष ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर
राजनीतिक रोटियाँ सेंकने का प्रयास करता है। उनके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा से अधिक
महत्वपूर्ण "मोदी विरोध" है, इसलिए
वे हर सफल अभियान को बदनाम करने में लगे रहते हैं। लेकिन जनता मूर्ख नहीं है,
वह देख रही है कि आज देश के किसी भी हिस्से में दहशत का वैसा
माहौल नहीं है जैसा 2004–2013 के बीच था। आपके सभी पाठकों को मै एक तथ्य से अवगत करवाना चाहता हूँ की
मुंबई का 26/11 आतंकी हमले का मै साक्षी रहा हूँ , जब
26/11 का हमला हमारे मुंबई स्थित निवास के पास
हुआ था। एक बिहार का युवक जिसकी
शादी होने वाली थी वह
आतंकियों की गोलीबारी में शहीद हुआ। उस आतंकी घटना में सैकड़ो लोग मारे गए थे उस घटना का दर्द एक आम भारतीय की आत्मा में बसा
है। आज जब मोदी सरकार में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं हुई, तो यह केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि
एक सामाजिक और राष्ट्रीय संतुलन का प्रमाण है। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी सरकार ने
आतंकवाद पर न केवल नियंत्रण पाया है, बल्कि
यह संदेश भी दिया है कि भारत अब आतंकवाद के सामने झुकने वाला देश नहीं, बल्कि उसे जड़ से उखाड़ फेंकने वाला एक मजबूत राष्ट्र है। और
यह लड़ाई केवल हथियारों से नहीं, बल्कि नीति, रणनीति,
तकनीक और जन समर्थन से लड़ी जा रही है। ऐसे में विपक्ष को यदि
आलोचना करनी भी है, तो तथ्यों के आधार पर करे, न कि अंधविरोध के आधार पर। राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए,
दलगत राजनीति नहीं। प्रश्न: उत्तर (देवेश चन्द्र ठाकुर): विपक्ष का यह कहना कि उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा, एक पक्षीय और अक्सर राजनैतिक रूप से प्रेरित बयान प्रतीत होता
है। सरकार का यह कहना कि ‘हमने तो समय दिया, लेकिन वे बोल ही नहीं रहे’, यह
संकेत करता है कि समस्या संवाद की नहीं, बल्कि
नीयत और रणनीति की है। यह संसदीय सत्र, जो
देश की नीतियों और समस्याओं पर विमर्श का सबसे पवित्र मंच होना चाहिए, उसे कुछ लोग महज राजनीतिक नौटंकी और मीडिया फुटेज बटोरने का
मंच बना चुके हैं। यह एक विडंबना है कि विपक्ष बोलने के अधिकार की दुहाई देता है,
लेकिन जब बोलने का समय आता है तो मुद्दों से हटकर शोरगुल,
व्यक्तिगत आरोप, और
संसद की मर्यादा भंग करने का काम करता है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे नेता, जिनके परिवार ने दशकों तक इस देश में शासन किया, अगर यह कहते हैं कि हमें बोलने नहीं दिया जा रहा है, तो यह कथन अपने आप में हास्यास्पद प्रतीत होता है। क्या ऐसा
संभव है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में कोई विपक्षी नेता अपनी बात न
रख सके? नहीं, बिल्कुल
नहीं। उन्हें समय दिया जाता है, लेकिन वे उस समय का उपयोग रचनात्मक
आलोचना के बजाय विघटनकारी भाषणों, झूठे नैरेटिव और टकराव की राजनीति के
लिए करते हैं। जब नियम के अनुसार 10 मिनट
बोलने की अनुमति दी जाती है, तो वे उसे 2 घंटे
तक खींचने की कोशिश करते हैं। ऐसे में अध्यक्ष को कार्यवाही नियंत्रित करनी पड़ती
है, और जब कार्यवाही बाधित होती है तो इसे
बोलने की स्वतंत्रता का हनन कहना सरासर अनुचित और भ्रामक है। लोकतंत्र में बहस, विरोध
और आलोचना आवश्यक है, लेकिन वह मर्यादा और विधायी शिष्टाचार
के भीतर होनी चाहिए। विपक्ष का यह कर्तव्य है कि वह सरकार को जवाबदेह बनाए,
लेकिन इसका तरीका असंयमित व्यवहार, वेल
में आकर चिल्लाना, तख्तियां लहराना और माइक पर झपटना नहीं
हो सकता। संसदीय समय और संसाधन जनता के टैक्स से आते हैं, और
जब उसे जानबूझकर बर्बाद किया जाता है, तो
यह सीधे-सीधे जनादेश के साथ विश्वासघात है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संसद का प्रत्येक दिन करोड़ों
रुपये की लागत से चलता है। यह राशि किसी सरकार की नहीं, जनता
की गाढ़ी कमाई की है। जब हंगामे के कारण सदन स्थगित होता है, तब न तो कोई कानून बनता है, न
कोई सवाल-जवाब होते हैं, न ही किसी योजना या प्रस्ताव पर चर्चा
होती है। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संसद में इस प्रकार का व्यवहार
न केवल लोकतंत्र का अपमान है, बल्कि करोड़ों भारतीयों के सपनों और
आशाओं की उपेक्षा भी है। यह
आवश्यक है कि विपक्ष जिम्मेदारी से व्यवहार करे, और
हमारी सरकार भी विपक्ष को बोलने का पूरा
अवसर दे रही है । लेकिन बोलने के अधिकार का अर्थ यह नहीं कि कोई भी कुछ भी बोले,
संसद को अस्त-व्यस्त करे और बाद में यह कहे कि हमें बोलने नहीं
दिया गया। लोकतंत्र बहस से चलता है, बहसबाज़ी
से नहीं; संवाद से चलता है, हंगामे से नहीं; और
सबसे अधिक, यह उस आचरण से चलता है जो जनसेवा की
नीयत से प्रेरित हो not सिर्फ
कैमरे की चाहत से। अतः संसद को राजनीति का अखाड़ा नहीं, राष्ट्रनीति
का मंदिर मानकर आचरण करना ही प्रत्येक सांसद की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होनी चाहिए। प्रश्न:
रामायण सर्किट के अंतर्गत सीतामढ़ी को
एक विशेष स्थान प्राप्त है, जहां
माता सीता का भव्य मंदिर निर्माणाधीन है। यह स्थान न केवल भारत में, बल्कि विश्व पर्यटन मानचित्र पर अपनी पहचान बना रहा है। ऐसे
में बिहार सरकार, केंद्र सरकार और आपके स्तर पर इस
परियोजना को लेकर क्या प्रयास किए जा रहे हैं? इस मंदिर निर्माण में आपका योगदान क्या रहा है और सीतामढ़ी को
धार्मिक-सांस्कृतिक पर्यटन का केंद्र बनाने की दिशा में आगे की क्या योजनाएं हैं? उत्तर (देवेश चन्द्र ठाकुर): यदि आप पिछले 25 वर्षों
में देखेंगे, तो जिस किसी ने भी मां सीता के लिए भव्य
मंदिर निर्माण की मांग को निरंतर मंचों पर उठाया है, तो
यकीनन मैं पहले तीन लोगों में गिना जाऊंगा। यह भावना तब भी थी जब मैं पहली बार
विधायक बना, जब मैं बिहार सरकार में मंत्री रहा,
जब विधान परिषद का सभापति रहा—हर
दौर में, हर पद पर रहते हुए मैंने सीतामढ़ी के
लिए, मां सीता के लिए एक ही बात कही कि जिस
प्रकार अयोध्या में भगवान श्रीराम का मंदिर बना, उसी
तरह सीतामढ़ी में भी मां सीता का भव्य मंदिर बनना चाहिए। हमारा यह संघर्ष मात्र धार्मिक आग्रह नहीं था, यह हमारी सांस्कृतिक चेतना, ऐतिहासिक
न्याय और भारतीय नारी अस्मिता से जुड़ा प्रश्न था। हजारों वर्षों पूर्व जिस मां
सीता पर अन्याय हुआ, वह अन्याय प्रतीकात्मक रूप से आज तक
जीवित था। अयोध्या के राम मंदिर को लेकर जो मामला था, वह
अदालत में लटका हुआ था। जैसे ही न्यायालय ने निर्णय दिया, वैसे
ही आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में दो वर्षों के भीतर
भगवान राम का भव्य मंदिर बनकर तैयार हो गया। इसके लिए हम सब देशवासी उनके आभारी
हैं। लेकिन सीतामढ़ी का प्रश्न किसी तकनीकी विवाद या कानूनी बाधा
में नहीं था, यह एक “इच्छाशक्ति”
का मामला था, जो अब जाकर साकार रूप ले रहा है। मैं
अपने हृदय की गहराइयों से बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी को धन्यवाद
देता हूं कि उन्होंने लगभग 850 से 880 करोड़
रुपए की
राशि को बिहार सरकार की कैबिनेट से स्वीकृति दिलाई, ताकि
मां सीता का मंदिर भव्य स्वरूप ले सके। यह कदम न केवल एक धार्मिक कार्य है,
बल्कि यह सीतामढ़ी को वैश्विक पर्यटन मानचित्र पर स्थापित करने
की दिशा में एक क्रांतिकारी प्रयास है। मैं केंद्र सरकार के शीर्ष नेतृत्व आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी और गृहमंत्री श्री
अमित शाह जी को भी कोटिशः धन्यवाद देता हूं कि
उन्होंने इस भावनात्मक और ऐतिहासिक संकल्प को समझा और उसे मूर्त रूप देने में
सक्रिय भागीदारी निभाई। यह मंदिर सिर्फ एक स्थापत्य नहीं होगा, यह भारत की नारी गरिमा, पारिवारिक
मूल्यों और त्याग की महान परंपरा का प्रतीक बनेगा। यह भारतवर्ष के उन करोड़ों लोगों की श्रद्धा
का केंद्र बनेगा जो मां सीता को मात्र एक पात्र नहीं, बल्कि
एक आदर्श, एक प्रेरणा और एक शक्ति मानते हैं। अब जब यह मंदिर निर्माण कार्य शुरू हो चुका है और रामायण
सर्किट के माध्यम से सीतामढ़ी को जोड़कर संपूर्ण भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक और पर्यटन यात्रा को एक नया आयाम दिया जा रहा है,
तब हमें यह भी सुनिश्चित करना है कि स्थानीय स्तर पर रोजगार,
आधारभूत ढांचे, यातायात, आवास,
स्वच्छता, और सुरक्षा की सुविधाएं भी उस स्तर पर
विकसित हों, जो अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के अनुकूल
हो। मेरा मानना है कि मां सीता का यह मंदिर न केवल बिहार को गौरव
दिलाएगा, बल्कि भारत के अध्यात्मिक पर्यटन का नया
केंद्र बनेगा, जहां लोग केवल दर्शन के लिए नहीं,
बल्कि भारत की नारीशक्ति, सहनशीलता,
धैर्य और गरिमा को समझने आएंगे। यह सीतामढ़ी की नहीं, पूरे भारत की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का अवसर है। और
इस पुनर्जागरण में यदि मेरी छोटी सी भूमिका भी है, तो
मैं उसे मां जानकी के चरणों में समर्पित करता हूं। मुझे विश्वास है कि उनके
आशीर्वाद से यह क्षेत्र फलेगा, फूलेगा और एक नया सांस्कृतिक भारत
निर्माण की दिशा में अग्रसर होगा। तो हमारे विशेष संवाद में हमारे साथ थे जनतादल
(यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेता और सीतामढ़ी लोकसभा क्षेत्र से सांसद माननीय देवेश
चंद्र ठाकुर जी। उन्होंने
हमारे हर प्रश्न का न केवल बेबाकी से उत्तर दिया, बल्कि अपने अनुभव, दृष्टिकोण और जनसंवेदनाओं की गहराई से भी अवगत कराया। चाहे विषय रहा शिक्षा में
भगवाकरण की बहस, या फिर आगामी बिहार विधानसभा चुनावों की संभावनाएं हों, या महाराष्ट्र में हिंदी भाषियों पर हो रहे
हमले, आतंकी घटनाएं हों या विपक्ष द्वारा संसद में बार-बार किए जा रहे हंगामे , हर मुद्दे पर उन्होंने स्पष्ट और संतुलित
दृष्टिकोण रखा। साथ ही, उन्होंने सीतामढ़ी में माता सीता के भव्य मंदिर के
निर्माण को लेकर अपनी
भावनाओं और प्रतिबद्धताओं को भी हमारे सामने रखा। हम, राष्ट्रीय सागर परिवार की ओर से माननीय देवेश चंद्र ठाकुर जी के उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु एवं जनसेवा में निरंतर सफलता की कामना करते
हैं।
स्थान – दिल्ली स्थित आवास,
संसद सत्र के
दौरान
संवाददाता – चंदन झा
नमस्कार! मैं चंदन
झा और आप पढ़ रहे हैं राष्ट्रीय सागर का विशेष राजनीतिक
संवाद। आज हमारे साथ मौजूद हैं जनतादल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेता और सीतामढ़ी से सांसद देवेश चन्द्र ठाकुर। वर्तमान में संसद का मानसून सत्र जारी है और सत्र के बीच
हम पहुंचे हैं उनके दिल्ली स्थित आवास पर, जहां हम चर्चा करेंगे मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रमों पर
देखिए, यह एकदम बेबुनियाद आरोप है। इसमें कोई
तथ्य नहीं है, कोई दम नहीं है।
यह तो बस विपक्ष का एक ऐसा तीर है जो न निशाना जानता है, न दिशा। सवाल यह है कि आखिर कौन-सा ऐसा
कदम उठाया गया है जिससे यह सिद्ध होता हो कि शिक्षा का भगवाकरण किया जा रहा है?
यह एक बहुत
प्रचलित राजनीतिक ड्रामा बन गया है। "एक खास विचारधारा" कहना बहुत आसान
है, लेकिन क्या किसी
ने यह बताया कि किस किताब में क्या बदला गया है, कौन-सी बात जबरन थोपी गई है? एनसीईआरटी हो या यूजीसी, सभी संस्थाएं विषय विशेषज्ञों और शिक्षाविदों के सुझावों पर
ही पाठ्यक्रम में बदलाव करती हैं।अब अगर रामायण या भगवद गीता के कुछ अंश पढ़ाए जा
रहे हैं तो क्या यह पहली बार हो रहा है? क्या अकबर, बाबर, और औरंगजेब के अध्याय शिक्षा में
अनिवार्य थे, तब वह सेक्युलर था
और अब जब चाणक्य या स्वामी विवेकानंद को पढ़ाया जा रहा है तो वह भगवाकरण हो गया?धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह नहीं होता कि आप अपनी जड़ों को ही काट दें। भारत
की धर्मनिरपेक्षता की विशेषता यह है कि हम सब धर्मों का आदर करते हैं, न कि अपनी परंपराओं को मिटा देते
हैं।सरकार कहीं यह नहीं कह रही कि कोई एक ही धर्म का प्रचार हो, बल्कि वह कह रही है कि हमारी अपनी
परंपराएं, अपने दर्शन और
अपने ऐतिहासिक नायक भी शिक्षा में स्थान पाएँ। इससे अगर किसी की विचारधारा को खतरा
महसूस होता है तो वह उनकी समस्या है।
हर भारतीय को इस
देश में कहीं भी जाने, बसने, काम करने और इज़्ज़त से जीने का अधिकार
है और ये अधिकार कोई राजनैतिक गुंडा छीन नहीं सकता।
जो भी भाषा के नाम
पर हिंसा फैलाता है, उसे सिर्फ कानून
से नहीं, जनता की चेतना और
लोकतंत्र के हथौड़े से जवाब मिलेगा।
आतंकवाद पर मोदी सरकार की नीति को लेकर
विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है, विशेषकर
हाल ही में हुए 'ऑपरेशन
सिंदूर' को लेकर। विपक्ष का आरोप है कि सरकार
केवल प्रचार में लगी है, जबकि
आतंकी गतिविधियों पर वास्तविक नियंत्रण नहीं है। ऐसे में मोदी सरकार के कार्यकाल
में आतंकवाद से निपटने की नीति और सफलता को आप कैसे देखते हैं? क्या वाकई मोदी सरकार ने आतंकवाद पर अंकुश लगाया है?
इस प्रश्न के उत्तर में सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि
आतंकवाद कोई एक दिन में उत्पन्न समस्या नहीं है, न
ही यह कोई क्षेत्रीय संकट है, बल्कि यह एक दीर्घकालिक राष्ट्रीय एवं
वैश्विक चुनौती है, जिसका समाधान केवल राजनीतिक बयानबाजी से
नहीं, बल्कि सशक्त इच्छाशक्ति, रणनीतिक नेतृत्व और निरंतरता से संभव है। और यही तीनों
विशेषताएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कार्यरत वर्तमान सरकार की
नीति में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं।
संसद में वर्तमान के मानसून सत्र के
दौरान बार-बार विपक्षी दलों द्वारा हंगामा किया जाता है, सत्र स्थगित होता है, और
विपक्षी नेता जैसे राहुल गांधी, प्रियंका
गांधी आदि सरकार पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा है। वहीं
सरकार कहती है कि विपक्ष खुद बोलना नहीं चाहता और सिर्फ अराजकता फैला रहा है। ऐसे
में सवाल उठता है कि इस तरह बार-बार सदन की कार्यवाही बाधित करना, हल्ला-हंगामा करना क्या लोकतंत्र और जनता के पैसे का दुरुपयोग
नहीं है?
बिल्कुल, यह अत्यंत गंभीर विषय है और सीधे हमारे
लोकतंत्र की गरिमा, संसदीय परंपराओं और जनता के प्रति
जिम्मेदारियों से जुड़ा हुआ प्रश्न है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51A हमें यह स्पष्ट रूप से बताता है कि हर नागरिक का यह कर्तव्य है
कि वह सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करे और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का आदर करे। और
जब हम प्रतिनिधियों को संसद में चुनकर भेजते हैं, तो
हम यह अपेक्षा रखते हैं कि वे जनता की समस्याओं को उठाएंगे, नीति-निर्माण
में भाग लेंगे, और राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते
हुए बहस व विमर्श करेंगे। किंतु जब वही प्रतिनिधि जिन पर देश ने विश्वास जताया बहस
के बजाय हंगामा, नारेबाजी और सत्र को बाधित करने का काम
करते हैं, तो यह न केवल संसदीय कार्य का अपमान है,
बल्कि प्रत्यक्ष रूप से करदाताओं के पैसे और संसाधनों का भी
घोर दुरुपयोग है।
देखिए, किसी भी धार्मिक और सांस्कृतिक कार्य को
लेकर अगर कोई व्यक्ति खुद अपने योगदान की चर्चा करने लगे, तो
उसमें आत्मप्रशंसा की गंध आ सकती है, जो
मेरी आदत बिल्कुल नहीं रही है। न ही मैंने कभी मंचों पर अपनी वाहवाही कराई,
और न ही मैं आज उस पर जोर देना चाहता हूं। लेकिन अगर आप
सीतामढ़ी की बात करें—मां जानकी की जन्मभूमि की बात करें—तो यह विषय हमारे लिए न राजनीति का था, न
प्रचार का, यह हमारे लिए एक भावनात्मक आस्था का
विषय रहा है, एक गहरी आत्मा से जुड़ी हुई पुकार रही
है।
राष्ट्रीय सागर विशेष संवाद : सांसद देवेश चन्द्र ठाकुर
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