जोधपुर, 6 दिसंबर (हि.स.)। राजस्थान हाईकोर्ट ने पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली पर गंभीर टिप्पणी की है। कोर्ट ने नौकरी से बर्खास्त एक कांस्टेबल को बड़ी राहत प्रदान की है। कहा कि किसी कर्मचारी को बर्खास्त करना उसकी आर्थिक मौत के समान है, इसलिए ऐसा निर्णय लेते समय ठोस सबूतों का होना अनिवार्य है।
जस्टिस फरजंद अली की एकल पीठ ने अपने रिपोर्टेबल जजमेंट में नागौर के मेड़ता सिटी निवासी याचिकाकर्ता कांस्टेबल शंकरराम की याचिका को स्वीकार करते हुए उसे तत्काल प्रभाव से सेवा में बहाल करने का आदेश दिया है। मामला नागौर जिले की मेड़ता सिटी तहसील के सिराधना निवासी कांस्टेबल शंकरराम से जुड़ा है। शंकरराम ने 24 सितंबर 2008 को पुलिस सेवा जॉइन की थी। आरोप था कि वर्ष 2009-2010 में, जब वह प्रोबेशन काल में थे, उन्होंने पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में कैंटीन चलाने वाले ठेकेदार रिछपाल सिंह से उनके बेटे भूपेंद्रसिंह को पाली जिले में कांस्टेबल की नौकरी दिलाने का झांसा दिया।
आरोप के मुताबिक शंकरराम ने इसके बदले 1 लाख 30 हजार रुपए मांगे और 50 हजार रुपए एडवांस के तौर पर अपने और अपने चचेरे भाई के खाते में जमा करवाए। इस मामले में 4 मई 2015 को शंकरराम को चार्जशीट जारी की गई। विभागीय जांच के बाद अनुशासनिक अधिकारी ने 29 नवंबर 2016 को उसे दो वार्षिक वेतन बढ़ोतरी रोकने की सजा सुनाई। याचिकाकर्ता ने इस सजा के खिलाफ अपील की, लेकिन अपीलीय अधिकारी ने 29 सितंबर 2017 को मामले को यह कहते हुए रिमांड पर वापस भेज दिया कि सजा अपर्याप्त है।
इसके बाद अनुशासनिक अधिकारी ने 14 नवंबर 2017 को सजा बढ़ाकर चार वार्षिक वेतन वृद्धि रोकने का आदेश दिया। मामला यहीं नहीं रुका। जोधपुर रेंज के आईजी ने समीक्षा अधिकारी के रूप में राजस्थान सिविल सेवा (सीसीए) नियम-1958 के नियम 32 के तहत स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्यवाही शुरू की। आईजी का तर्क था कि निचली अथॉरिटी का आदेश तर्कसंगत नहीं था। अंतत: 15 मई 2018 को आईजी ने पिछले सभी आदेशों को रद्द करते हुए कांस्टेबल शंकरराम को सेवा से बर्खास्त करने का आदेश जारी कर दिया।
याचिकाकर्ता की ओर से वकील ने कोर्ट में आईजी के आदेश को चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि जिस नियमित विभागीय जांच के आधार पर कार्रवाई होनी चाहिए थी, उसमें अभियोजन पक्ष अपना केस साबित ही नहीं कर पाया। वकील ने कोर्ट को बताया कि मुख्य गवाह (परिवादी ठेकेदार और उसका बेटा) जांच के दौरान अपने बयानों से मुकर गए थे। इसके अलावा, इसी मामले को लेकर किशनगढ़ पुलिस थाने में दर्ज एफआईआर में भी पुलिस ने जांच के बाद इसे सिविल प्रकृति का मामला मानते हुए फाइनल रिपोर्ट लगा दी थी, जिसे न्यायिक मजिस्ट्रेट ने स्वीकार भी कर लिया था।
दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस फरजंद अली ने माना कि आईजी ने अपनी शक्तियों का मनमाना उपयोग किया है। कोर्ट ने अपने निर्णय में 15 मई 2018 के बर्खास्तगी आदेश और उससे जुड़े रिमांड आदेशों को रद्द कर दिया। शंकर राम को तत्काल प्रभाव से सेवा में बहाल करने का निर्देश दिया। बर्खास्तगी से बहाली तक की अवधि को निरंतर सेवा माना जाएगा। कोर्ट ने मामला वापस आईजी के पास भेजा है। वे चाहें तो तीन महीने में नई सजा तय कर सकते हैं, लेकिन उन्हें केवल नियमित जांच के रिकॉर्ड को ही आधार बनाना होगा, प्रारंभिक जांच को नहीं।
राजस्थान हाईकोर्ट : किसी कर्मचारी को बर्खास्त करना आर्थिक मौत जैसा
नौकरी से बर्खास्त कांस्टेबल को हाईकोर्ट से मिली राहत, बहाली के आदेश












