खूंटी। झारखंड के जनजातीय समाज खासकर छाेटानागपुर के आदिवासियों के प्रमुख त्योहारों में करमा उनमें से एक है। इस पर्व की विशेषता है कि करमा का त्योहार गैर आदिवासियों में भी उसी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है, जितना आदिवासी समाज। भले ही दोनों की पूजा विधियों और परंपरा में अंतर है, पर सभी जगह करम पेड़ की डाली को गाड़कर उसकी विधि विधान से पूजा की जाती है। कहीं-कहीं करम पेड़ की ही पूजा करने की परंपरा है।
गैर आदिवासियों के घरों में पंडित-पुरोहित पूजा कराते हैं, जबकि आदिवासी समाज में पाहन पूजा कराता है और करम-धरम की कहानी सुनाता है। आदिवासी समाज में अखड़ा में सामूहिक रूप से करम पूजा की जाती है, जबकि सदानों के घरों के आंगन में करम की डाली को गाड़कर पूजा करने की परंपरा है, लेकिन सदानों के घरों में भी पाहन ही करम की डाली गाड़ता और पहली पूजा वहीं करता है। उसके बाद ही पंडित पुजारी पूजा कराते हैं। दोनों ही समाज में करमा का त्योहार भद्रपद(भादो) महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को ही मनाई जाती है। इस बार 14 सितंबर शनिवार को पूरे झारखंड में यह त्योहार मनाया जाएगा। जिस प्रकार जनजातीय समाज के मुंडा, उरांव, हो, संताल सहित अन्य समुदायों में करमा मनाया जाता है, उसी प्रकार हिंदू समाज के ब्राहृमण, राजपूत, तेली, कुर्मी, कोइरी, हरिजन, कुम्हार, बनिया सहित सभी जातियों में यह पर्व श्रद्धाभाव से मनाया जाता है।
आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है करमा पर्व : भीम मुंडा
अखिल भारतीय सरना समाज के नेता और जनजातीय समाज के रीति-रिवाजों को नदजीक से जानने वालें भीम मुंडा बताते हैं कि करमा का त्योहार बहनें अपने भाइयों की सुख-समृद्धि और लंबी आयु के लिए करती हैं। साथ ही धान रोपनी के बाद इस पर्व को मनाने का कारण है अच्छी फसल के लिए ईश्वर की आराधना। भीम मुंडा ने कहा कि यह त्योहार भाई-बहन के पवित्र संबंध और अटूट प्रेम को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि करमा पर्व को आदिवासी संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। इस त्योहार में एक खास तरह का नृत्य होता है, जिसे करम नाच कहा जाता है।
उन्होंने बताया कि आदिवासी और आादिवासी और मूलवासी समाज में अधिकतर कुवांरी लड़कियां ही करती हैं।इस पर्व में बहने अपने भाईयों की रक्षा के लिए उपवास रखती हैं। इन व्रतियों को कररमैती या करमइती कहा जाता है।
पर्व मनाने के लिए करमैती 11 दिन, नौ दिन अथवा सात दिन काा अनुष्ठान करती हैं। करमा अनुष्ठान के पहले दिन करमैती किसी नदी से बालू लाती हैं और किसी बांस या पत्ते की टोकरी में बालू रखकर ननेम-निष्ठा के साथ पूजा-अर्चना कर बालू में सप्त धान्य सा सात के अनाज कुलथी, चना, जौ, तिल, मकई, उड़द, सुरगुजा या गेहूं के बीज डालती हैैं। कुछ ही दिनों में वहां पौधे निकल आते हैं, जिसे जावा कहा जाता है। इसी जावा का उपयोग करमा पूजा में किया जाता है।
करमैती हर दिन जावा की पूजा-अर्चना करती हैं और नृत्य करती हैं। भीम मुंडा ने बताया कि पर्व के एक दिन पहले अर्थात भादो महीने की शुक्ल दशमी तिथि को करम के पेड़ के पास जाकर निमंत्रण दिया जाता है। निमंत्रण देने के लिए बांस के एक डलिया में सिंदूर, बेल पत्ता, अरवा चावल की गुंडी सुपाड़ी, धूप-दीप लेकर जाना पड़ता है और करम राजा को घर अथवा अखड़ा में आने का न्यौता दिया जाता है। करम पूजा के लिए हर तरह के फूल-फल आदि को एकत्रित किया जाता है। पूजा समाप्ति के बाद पाहन या पुजारी करम-धरम की कहानी सुनाते हैं। कथा के बाद करमैती सभी लोगों को जावा और प्रसाद देती हैं। बाद में रात भर नृत्य-गीत का दौर चलता है, जो रात भर जारी रहता है। दूसरे दिन करम की डालियों का किसी नदी या तालाब में प्रवाहित कर दिया जाता है।