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संसद परिसर में भारतीय संस्कृति के प्रतिमान : 21वीं सदी और नवोत्‍थान, रथ यात्रा के तीन पवित्र पहिए


भारत केवल एक राजनीतिक इकाई नहीं है, बल्कि हजारों वर्षों की सांस्कृतिक यात्रा का संगम है। इसकी संसद भी केवल कानून बनाने का स्थान नहीं है, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का प्रतिबिंब है। बीते कुछ वर्षों में संसद परिसर को भारतीय परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहरों से जोड़ने की जो प्रक्रिया प्रारंभ हुई है, वह वास्तव में ऐतिहासिक है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के नेतृत्व में संसद अब केवल लोकतांत्रिक विचारों का मंच नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का केंद्र भी बनती जा रही है। इस दिशा में पहले नए संसद भवन के भव्य निर्माण के समय ही इस बात का ध्‍यान रखा गया कि भारत के सांस्कृतिक और सभ्यतागत इतिहास की पूरी झलक दिखाई दे। इसलिए 'लोकतंत्र के मंदिर' के आंतरिक भाग के विषय भारत के तीन राष्ट्रीय प्रतीक हैं - कमल, मोर और बरगद का पेड़। नए संसद भवन में छह द्वारों के नाम भी गज द्वार, अश्व द्वार, गरुड़ द्वार, मकर द्वार, शार्दुल द्वार और हम्सा द्वार रखे गए। अब सबसे महत्वपूर्ण कदम पुरी की विश्वविख्यात रथ यात्रा के तीन पवित्र रथों के तीन पहिए संसद परिसर में स्थापित किए जाने को लेकर लिया गया है।

भारतीय लोकजीवन का विराट स्‍वरूप है श्रीजगन्नाथ यात्रा

इतिहास की लोककथाएं हमें इसके बारे में बहुत कुछ बताती हैं। पुरी का श्रीजगन्नाथ मंदिर और वहां होने वाली वार्षिक रथ यात्रा केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि भारतीय लोकजीवन की एक विराट परंपरा है। भगवान जगन्नाथ का नंदीघोष रथ, देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ और भगवान बलभद्र का तालध्वज रथ, सदियों से जन-जन की आस्था का केंद्र रहे हैं। इन रथों से एक-एक पवित्र पहिया निकालकर संसद परिसर में स्थापित करना निश्‍चित ही एक सांस्कृतिक प्रतीक होगा और यह भारत की एकता और अखंडता का भी संदेश है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने अपनी पुरी यात्रा के दौरान इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और अब यह पहल संसद को एक नए ऐतिहासिक आयाम देने वाली है।

एक सूत्र में पिरोने का सूत्र है ‘रथ’

यह केवल एक प्रतीकात्मक स्थापना नहीं है। भारत की परंपरा में रथ यात्रा का विशेष महत्व है। रथ यात्रा का अर्थ ही है, सबको जोड़ना। इस यात्रा में न कोई उच्च-निम्न का भेद रहता है, न जाति का, न धर्म का। हर वर्ग और हर समुदाय के लोग एक साथ मिलकर रस्सियों से रथ खींचते हैं और मानते हैं कि यह कार्य समाज को जोड़ने का, सबको एक सूत्र में पिरोने का अवसर है। यही कारण है कि संसद परिसर में इन रथों के पहियों की उपस्थिति भारतीय लोकतंत्र की चेतना को और भी स्पष्ट करेगी कि यहां सबको समान स्थान प्राप्त है।

हो चुकी है संसद में सेंगोल स्‍थापना

इससे पहले भी संसद परिसर में भारतीय संस्कृति से जुड़े प्रतीक स्थापित किए गए हैं। वर्ष 2023 में प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में स्पीकर की कुर्सी के बगल में सेंगोल स्थापित किया था। सेंगोल भारत की स्वतंत्रता के समय सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक है। 14 अगस्त 1947 की रात इसे पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया था। लंबे समय तक यह आनंद भवन और फिर इलाहाबाद म्यूजियम में रखा रहा। लेकिन संसद में उसकी स्थापना ने यह संदेश दिया कि भारतीय स्‍वाधीनता का इतिहास और सांस्कृतिक धरोहरें केवल पुस्‍तकों में बंद रहने के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संस्थानों में जीवंत रूप में उपस्थित रहने के योग्य हैं।

यदि हम व्यापक दृष्टि से देखें तो मोदी सरकार के ये कदम सिर्फ धार्मिक भावनाएं नहीं हैं, वास्‍तव में इस दिशा में किए जा रहे सभी प्रयास भारत की उस प्राचीन धारा को पुनर्जीवित करने के प्रयत्‍न हैं जिसमें संस्कृति और शासन दोनों एक-दूसरे के पूरक माने जाते रहे। वेदों और उपनिषदों से लेकर लोक परंपराओं तक, हर स्तर पर भारत ने हमेशा यही कहा है कि राष्ट्र केवल राजनीतिक शक्ति से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों से भी संचालित होता है। “आनो भद्राः कृतवो यन्तु विश्वतः” जैसे वेदवाक्य संसद की दीवारों पर लिखे गए हैं, जो यह दर्शाते हैं कि भारत की लोकतांत्रिक परंपरा पश्चिम से आयातित नहीं, बल्कि हमारी अपनी जड़ों से उत्पन्न है।

दिखा है पिछले 11 वर्षों में सांस्‍कृतिक भारत का नया स्‍वरूप

भारतीय लोकतंत्र की यह सांस्कृतिक यात्रा मोदी सरकार के प्रयासों से और अधिक स्पष्ट हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस मनाया जाना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। आज दुनिया के लगभग हर देश में 21 जून को योग दिवस मनाया जाता है। यह केवल एक स्वास्थ्य पद्धति नहीं, बल्कि भारतीय जीवनदर्शन का परिचायक है। इसी तरह आयुर्वेद, खादी, भारतीय भाषाओं और लोककलाओं को जो मान्यता दी जा रही है, वह भी इसी सांस्कृतिक दृष्टि का हिस्सा है।

संसद परिसर में लोक परंपराओं को स्थान मिलने का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यह वह स्थान है जहां से पूरे देश के लिए नीतियां बनती हैं। जब वहां परंपराओं और संस्कृति के प्रतीक उपस्थित होंगे तो वे लगातार यह स्मरण कराते रहेंगे कि भारत का लोकतंत्र केवल संवैधानिक नियमों का पालन भर नहीं है, वह उस जीवनदर्शन का विस्तार है जो हजारों वर्षों से इस भूमि पर पल्लवित हुआ है।

लोक परंपरा और राष्ट्रीय संस्था के संगम का सेतु है ये प्रयोग

पुरी रथ यात्रा के पहियों का संसद में स्थापित होना लोक परंपरा और राष्ट्रीय संस्था के संगम का अद्वितीय उदाहरण होगा। संसद में पहले से मौजूद कलाकृतियां भारत की विविधता को दर्शाती हैं, लेकिन रथ यात्रा जैसी लोकपरंपरा से जुड़े प्रतीक का वहां स्थान मिलना इस बात का संकेत है कि अब लोकसंस्कृति को भी राष्ट्रीय स्तर पर उतना ही महत्व दिया जा रहा है जितना शास्त्रीय परंपराओं को। यह “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” की अवधारणा को और मज़बूत करेगा।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि जगन्नाथ रथ यात्रा केवल ओडिशा की परंपरा नहीं है। आज यह देश के अनेक हिस्सों में मनाई जाती है। दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, कोलकाता, भोपाल, ग्‍वालियर, लखनऊ, चेन्नई, जयपुर कहीं भी देख लें, रथ यात्रा जन-जन के उत्सव के रूप में सामने आती है। संसद परिसर में इसके पहियों की उपस्थिति यह संदेश देगी कि जो परंपरा जन-जन को जोड़ती है, वही राष्ट्रीय एकता का वास्तविक आधार है।

भारत में धर्म और संस्कृति जीवन-दर्शन और समाज की एकजुटता का प्रतीक

यहां कुछ लोग यह प्रश्न जरूर उठा सकते हैं कि क्या संसद जैसी संस्था को धार्मिक प्रतीकों से जोड़ा जाना चाहिए? इसका उत्तर यह है कि भारत में धर्म और संस्कृति केवल पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं हैं। वे जीवन-दर्शन और समाज की एकजुटता का प्रतीक हैं। जगन्नाथ का अर्थ ही है; संपूर्ण जगत का नाथ। जब संसद परिसर में उनके रथ का पहिया स्थापित होगा तो यह किसी एक धर्म विशेष का नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के मार्गदर्शन का प्रतीक होगा।

धर्म और कर्म का प्रतीक है रथ

यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति में रथ को केवल वाहन नहीं, बल्कि धर्म और कर्म का प्रतीक माना गया है। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन का सारथी बनना इसी का द्योतक है। गीता का संदेश रथ पर ही दिया गया था। संसद में रथ यात्रा के पहिए स्थापित होना इस गहन प्रतीकवाद को भी सामने लाएगा कि राजनीति और शासन का उद्देश्य केवल सत्ता चलाना नहीं, बल्कि धर्म और कर्तव्य का पालन करना है।

वस्‍तुत: इस पूरी प्रक्रिया को एक “संस्कार अभियान” भी कहा जा सकता है। संसद परिसर में सेंगोल और अब जगन्नाथ रथ के पहिए स्थापित होना आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देगा कि भारत की संसद केवल विधायी संस्था नहीं, बल्कि वह स्थान है जहां भारत की आत्मा का वास है। यह प्रयोग न केवल वर्तमान को दिशा देगा, बल्कि कहना होगा कि भविष्य की राजनीति को भी सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने में सहायक होगा। वास्‍तव में मोदी सरकार और लोकसभा अध्यक्ष के नेतृत्व में संसद परिसर को भारतीय संस्कृति का जीवंत प्रतीक बनाने की जो पहल हुई है, वह बहुत ही शुभ और ऐतिहासिक कदम है। अंत में फिर एक बार यह कि सेंगोल और रथ यात्रा के पहिए केवल वस्तुएं नहीं हैं, यह दोनों की प्रतीक इस बात का संदेश हैं कि भारत का लोकतंत्र अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है। उम्‍मीद करें कि केंद्र सरकार का यह प्रयास भारत की एकता, अखंडता और सांस्कृतिक गौरव को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगा।

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